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बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (13) मानवीय पशुता ! (च) रति मदिरा पी कर चली |

 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

रेगिस्तान के लिए चित्र परिणाम
त्याग आवरण लाज का, शील के वसन  उतार !
रति  मदिरा  पी कर  चली, लिये वासना-ज्वार !!
घर   के   बेटे-बेटियाँ,   अल्पायु   में  आज  |
ढूँढ  रहे  हैं  भोग  सब,   दूषित  बाल-समाज ||
नृत्य-कला  के  नाम  परनग्नवाद  का नाच |
कामुक मुद्रा  दिखाते,   नर्तक   बने  पिशाच ||
नर्तकियाँ   भी   नाचतीं,   अपने अंग   उघार |
रतिमदिरा पी कर  चली, लिये वासना-ज्वार’ ||1||

विज्ञापन  में  नारियाँकर  अभिनय     दुश्शील |
नाम कमाती  फिर  रहींकर नाटक अश्लील  ||
शैशव  के  मन  पर  पड़ीऐसी  मीठी चोट  |
भोले-निश्छल ह्रदय   में,   भरे  अनगिनत खोट |
दृश्य  निर्वसन  देख  करकामी  बने  कुमार ||
रति मदिरा पी कर  चली, लिये वासना-ज्वार ||2||
लक्षमन-रेखा तोड़ कर, तबियत का रंगीन  |
दुराचार  रावण   बना,   मर्यादा   से   हीन   ||
सिया-लाज का हरण करकामी कई  किशोर  |
धूमिल कर  के  आयु  का, गँदला  करते  भोर ||
काम-पिपाशा  कर  रही,   सीमाओं   को   पार  |
रति मदिरा पी कर  चली, लिये वासना-ज्वार ||3||

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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