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शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (२)सरस्वती-वन्दना(घ)‘सत्यम’-‘शिवम’-‘सुन्दरम’ (ii)कर विनती स्वीकार !

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)   


कुण्ठित ‘वीणा’ हृदय की, जो दे माँ टंकार |
दे सबको ऐसी ‘कला’, कर विनती स्वीकार !!
जो मन की ‘पीड़ा’ हरे, दे ‘अन्तर-उल्लास’ |
‘जीवित’ कर ‘गतिशीलता’, भरे ‘आत्मविश्वास’ ||
‘कलाकार’ अब ‘कला’ के, मत पालें वे ‘रोग’ |
‘ठग-विद्या’ से भरें जो, सबके मन में ‘क्षोभ’ ||
‘धन-अर्जन’ हित जो बने, मत ‘कोरा व्यापार’ |
दें सबको ऐसी ‘कला’, कर विनती स्वीकार !!१!!

]

केवल अपने ‘भरण’ की, हो न ‘घिनौनी नीति’ !!
‘कला-साधकों’ में रहे, ‘शुभ चिन्तन’ औ ‘प्रीति’ !
‘परमार्थ’ से जुड़े हों, सभी ‘कला’ के ‘रूप’ !
सब ‘पूरा आनन्द’ लें, ‘निर्धन’ हों या ‘भूप’ !!
‘कलाकार’ धन कमाकर, करें सदा ‘उपकार’ !
दे सबको ऐसी ‘कला’, कर विनती स्वीकार !!२!!


‘कला-शिल्प’ के ‘प्रदर्शन’, हों ‘प्रपंच’ से दूर !
जो ‘जन-गण’ के लिये तो, रखें ‘प्रेम’ भरपूर ||
दूर रहें हर ‘कला’ से, ‘दम्भ’ औए ‘अभिमान’ !
अपनी ‘उन्नति’ भी करें, रखें सभी का ‘मान’ !!
‘स्वाभिमान’ जिसका सदा, बन जाये ‘आधार’ |

दे सबको ऐसी ‘कला’, कर विनती स्वीकार !!३!!

1 टिप्पणी:

About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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