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शुक्रवार, 28 मार्च 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (२)सरस्वती-वन्दना (ख)रस-याचना |(iv) वीभत्स-शान्त-अद्भुत-रस |


मित्रों ! इस सर्ग 'रस याचना' में  कोई भी रचना उस रस का परिपाक नहीं 

है, अपितु माता से उस रस को उसी प्रकार से काव्य में भरने की 

प्रार्थना है ! रस के लक्षण क्या होने चाहिये यह मनन-विश्लेषण 

किया गया है   

(सारे चित्र 'गूगल-खोज'से साभार)

‘माया-मल’ से अति ‘मलिन’, ‘पंक’ अखिल ‘संसार’ |
मुझे निकालो यत्न कर, हर ‘अवगुण’ के पार !!


‘घृणित आचरण’ पर पड़ी, उतरे जननि ‘नकाब’ !
‘अन्तर्मन’ पर ‘घृणा’ का, रहे न तनिक ‘दबाव’ !!


निथरे ‘अन्तर’ की ‘घृणा’, ऐसा हो ‘वीभत्स’ !
कर दे माँ, ‘मल-हीन’ मन, मैं हूँ तेरा ‘वत्स’ !!
‘शुद्ध’ करो ‘अन्त:करण’, सारी ‘मैल’ निखार !
मुझे निकालो यत्न कर, हर ‘अवगुण’ के पार !!१!!



किसी ‘झील’ की तरह जो, हो ‘लहरों’ से हीन |
जिसके ‘तल’ पर भी दिखे, ‘छोटी सुई महीन’ ||
ऐसे ‘निर्मल-विमल’ हो, ‘अमल’ ‘काव्य-रस’ शान्त !
जिसमें तो ‘स्नान’ कर, ‘कान्ति-हीन’ हों ‘कान्त’ !!
‘पारदर्शिता’ चित्त की, देखें मन के पार !
मुझे निकालो यत्न कर, हर ‘अवगुण’ के पार !!२!!


‘गवेषणा’ हो ‘सत्य’ की, हो ‘असत्य-अवरोध’ !
कुछ ‘अद्भुत’, कुछ ‘तथ्य-नव’, का कर पायें ‘शोध’ ||
‘चमत्कार’ हों कर्म के, ‘शठ-माया’ से दूर !
‘ज्ञान’ और ‘विज्ञान’ हों, ‘यथार्थ’ से भरपूर !!
‘मिथ्यापन’ से अलग हों, ‘जीवन’ के ‘व्यवहार’ !
मुझे निकालो यत्न कर, हर ‘अवगुण’ के पार !!३!!



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(मेरे ब्लॉग 'प्रसून' पर भी पधारें !)


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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