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रविवार, 5 मई 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ट) ‘मानवीय पशुता’ |(८) काम-जाल


तीन  दिनों तक कम्प्यूटर में खराबी के बाद आज पुन; आप के बीच में उपस्थित हूँ |इस सर्ग की  इस अन्तिम  रचना में  कुछ 'अमीर जादों'  के धन से खरीदे गये  धन लोलुप 'सौंदर्य'  द्वारा देह व्यापार तथा हॉट म्यूजिक के नाम पर  'यौन अनावरण' की और ध्यान केंद्रित किया गया है |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 

############डाल  के ‘चारा लोभ का’,  धनिकों  ने  लीं पाल |
‘प्रीति की प्यारी मछलियाँ’, फँसीं ‘काम के जाल’ ||
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अपना  ‘हीरा लाज का’, बेच के ‘सस्ते मोल’ |
ऐसी ‘दौलत’ खो रहीं, जिसकी कहीं न ‘टोल’ ||


‘ग्राहक’  रीझें  इस  लिये,  देतीं वसन उतार |
सजे हैं इन के ‘नाच’ से,  क्लब, कैशीनो, बार ||
कलियुग में ‘कलि’ ने चली, ‘कुटिल कुचाली चाल’ |
‘प्रीति की प्यारी मछलियाँ’, फँसीं ‘काम के जाल’ ||१||


‘नृत्य-कला’  जो  खोलती,  थी ‘मन की हर गाँठ’ |
अब  केवल  ‘सम्भोग’  के,  पढ़ा रही  है  ‘पाठ’ ||
अभिनेता - अभिनेत्रियाँ,   देते   ऐसी   सीख |
युवक  - युवतियां  माँगते,  ‘रतिदान  की  भीख’ ||
‘मैली कीचड़’   में   सने,  ‘मोती’  और  ‘प्रवाल’ |
‘प्रीति की प्यारी मछलियाँ’, फँसीं ‘काम के जाल’ ||२||


‘काम-कला’  में  निपुण  ये,  सफल नारियाँ  आज |
भरती   हैं  उत्तेजना,   कर   पुरुषों   पर   राज ||
‘कलुष  कल्पना’   से   सदा,   ‘पौरुष’  होता  क्षीण |
‘जीवन  के  सुर’   सो   गये,   जैसे   टूटे  ‘ बीन’ ||
या  ‘बडवानल’ से जलें, ‘कमल  के  सुन्दर  ताल’ |
‘प्रीति की प्यारी मछलियाँ’, फँसीं ‘काम के जाल’ ||३||


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(इस ग्रन्थ के अगले सर्ग 'आधा संसार' का प्रकाशन कल से प्रारम्भ) 
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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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