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गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

राम हमारी दुनियाँ में (मेरी पुस्तक ‘प्रश्न-जाल’ से)

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          राम! ‘हमारी दुनियाँ’ में तुम’ कितने ‘रावण’ मारोगे ?
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दानवता की चोट’ से पीड़ित, ‘मानवता’ तो रोई है |

  ‘कुम्भकर्ण की नींद’ मिल गयी,’जागृति’ चैन से सोई है ||
          ‘आराजकता’ की ‘गति’ को है, ‘गहरी नींद’ में सुला दिया-
       इसे जगाने के प्रयास में,भगवन, तुम भी हारोगे ||
          राम! ‘हमारी दुनियाँ’ में तुम, कितने ‘रावण’ मारोगे ??१??

 औ र ‘चेतना’, ‘नशे’ में डूबी, ’मद-आलस’ में, ‘होश’ नहीं |
‘उचित’ और ‘अनुचित’ पहँचाने, ऐसा इसमें ‘जोश’ नहीं ||
‘बुद्धि’ में बैठा ‘कालनेमि’ है,बड़ा ‘स्वेच्छाचारी’ है-
‘व्यवस्थाओं के केश’ हैं उलझे, कैसे इन्हें सँवारोगे ??
राम! ‘हमारी दुनियाँ’ में तुम कितने ‘रावण’ मारोगे ??२??

‘पाप’ की ‘कालिख’ पुती हुई अब, ‘पुण्य’ की ‘हर तस्वीर’ में है |
देखो कितनी ‘दलदल’ पनपी,’सरयू-गंगा-नीर’ में है ||
‘प्रदूषणों की लीला’ ऐसी, इस ‘अमृत’ में ‘विष ही विष’-
सब के सब ‘कीचड़’ में डूबे, किसको किसको तारोगे ??
       राम! ‘हमारी दुनियाँ’ में तुम कितने ‘रावण’ मारोगे ??३??


   राम! तुम्हारी ‘इस धरती’ में, आज ‘किस गली’ ‘धर्म’ बचा ?
   देखो तो’, ‘युग-परिवर्तन’ ने, ‘अवध’ में ‘वध’ का खेल रचा ||
  ‘धूर्त-नीति’ के दानव-कुल’ ने, इस को ‘लंका’ बना दिया –
  मुझे बताओ,कब आ कर के,’धर्म की धरा’ सुधारोगे ??
  राम! ‘हमारी दुनियाँ’ में तुम कितने ‘रावण’ मारोगे ??४??

‘भक्ति-भाव’ में ‘झूठ के दाग’ हैं,’ध्यान’ में ‘लोभ का भार’ भरा |
 ‘हर मन के आँगन’ में कितनी, ‘मैल’ का है ‘अम्बार’ भरा ||
 ‘निष्ठा की कूचियाँ’ हैं टूटी, ‘आस्थायें’ सब ‘दुर्बल’ हैं-
 ‘आँगन-आँगन’ ‘दम्भ के काँटे’, कैसे ‘मैल’ बुहारोगे ??
  राम! ‘हमारी दुनियाँ’ में तुम कितने ‘रावण’ मारोगे ??५??

  ‘प्रेम-प्रसून’ में ‘गन्ध’ नहीं है, चढ़े ‘तुम्हारे चरण’ में जो |
  ‘पुजारियों’ में ‘लोभ’ है व्यापा, आये ‘तुम्हारी शरण’ में जो ||
  ‘मन-मन्दिर’ में ‘गर्त पतन के’, इन में गिरे ये औंधे मुहँ-
   बड़ा कठिन है इन्हें बचाना, कैसे इन्हें उबारोगे ??
   राम! ‘हमारी दुनियाँ’ में तुम कितने ‘रावण’ मारोगे ??६??

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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