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शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

शंख-नाद(एक ओज गुणीय काव्य)-(ल) कूड़े का ढेर जलाओ !! (१ )आग दो ! आगदो !! आग दो !!


आग दो ! आगदो !! आग दो !!  
हर एक ‘सड़ी गली व्यवस्था’ को आग दो !
बुराई’ के लिये जगी ‘आस्था’ को आग दो ||
आग दो ! आगदो !! आग दो !! आग दो !!!

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‘नये युग’ में ‘नई नई प्रगति’ की बात करो |
किन्तु फिर भी, ‘साफ़-सुथरी नियति की बात करो ||
‘तीन युग के मारे दानव’ आज जी उठे |
‘समर्थन का रस-अमृत’ पुन: आज पी उठे ||
जिसका हक़ छीन लिया, उसका उसे भाग दो !
‘हड़प-नीति के कूड़े करकट’ को आग दो !!
‘एकता को तोड़े’, ‘ऐसे संकट’ को आग दो !!
आग दो ! आगदो !! आग दो !! आग दो !!१!!


छोड़ दो ‘पुरानी लीक’, ‘अवशेषवाद’ की |
‘भूमि में दबे’ यही ‘क़ीमत’ है ‘खाद’ की ||
‘स्वर पुराना’, रखो मत, ‘किसी नये साज़’ में ||  
‘विकास की नयी बीन’ को ‘नया राग’ दो !!
फिर भी ‘कर्ण-कटु नये गीत’ में आग दो !!
‘वसन उतारे’,‘ऐसे संगीत’ में आग दो !!
आग दो ! आगदो !! आग दो !! आग दो !!२!!
‘आस्तिकता’ को ‘छला है’ ‘झूठे पाखण्ड’ ने |
‘निष्ठाओं’ को ठगा है’ ‘आडम्बर प्रचण्ड’ ने ||
‘शक्ति की साधना’ में, ‘घिनौनी उपासना’ |
घुस आई, ’मद पी कर’,‘ओढ़ कर के’, ‘वासना’ |
‘तन में’ इसके ‘ताप’ है,इसे ‘अंग राग’ दो !      
नशेड़ी पुजारियों के,’विचारों’ में आग दो !!
‘पूजा’ में ‘पनप रहे,विकारों में आग दो !!
आग दो ! आगदो !! आग दो !! आग दो !!३!!


 
‘कच नार’ में, ‘आग’ है ‘काम’ की ‘पनप रही’ |
‘प्रौढता’ से पहले ही, ‘भोग को कलप रही’ ||   
“प्रसून” नहीं बन पाई,’कली’ अभी ढंग से है |
कच्ची ही रंग गयी,’वासना के रंग’ से है ||
‘मर्यादा की महक वाला’ इसे ‘कोई बाग़’ दो !!    
‘अनंग’ की ‘अनियमित उतावली’ को ‘आग दो’!!
‘रति’ की ऐसी ‘इच्छा बावली’ को ‘आग दो’ !!
आग दो ! आग दो !! आग दो !! आग दो !!४!!





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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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